उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद

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सब कुछ कहके हार गयी। टलती ही नहीं। धरना दिये बैठी है। ' 'अच्छा चल, देखूँ कैसे नहीं उठती, घसीटकर बाहर निकाल दूँगा। ' 'दाढ़ीजार भोला सब कुछ देख रहा था; ...

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